केवल छह प्रतिशत इलाके में पैदावार, कैंसर के इलाज में सहायक औषधीय प्रजाति बिरमी खतरे में
शिमला , ब्यूरो रिपोर्ट
हिमालय की ठंडी और नम जलवायु में पाई जाने वाली औषधीय प्रजाति बिरमी खतरे में है। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू, ननखड़ी, रामपुर और गोपालपुर में इस सदाबहार औषधीय पौधे को पाया जाता है, जो कैंसर का इलाज करता है।
यह प्रजाति खतरे में है क्योंकि पर्यावरण बदल गया है, बहुत अधिक अवैध कटान होता है, दवा का बहुत अधिक इस्तेमाल होता है और बीज जल्द तैयार नहीं होते। ये कारण जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण एवं सतत विकास अनुसंधान संस्थान ने खोजा।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने इस प्रजाति के संकट के कारण इसे संकटग्रस्त प्रजातियों की लाल सूची में डाल दिया है। हिमाचल प्रदेश की जैव विविधता में, टैक्सस कॉन्टोर्टा में पाया जाने वाला बिरमी या हिमालयन ह्यू विशिष्ट है। इस लोकप्रिय औषधीय पौधे के गहरे हरे पत्ते और लाल जामुन वाले फलों से टैक्सेन रसायन निकलता है, जिसका मिश्रण कैंसर के इलाज में उपयोग किया जाता है।
हजारों साल से स्थानीय लोग इसका उपयोग सामान्य सर्दी, खांसी, बुखार और दर्द के इलाज के लिए भी करते रहे हैं। स्थानीय लोग सांस्कृतिक उत्सवों में इसकी लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं। इसकी लकड़ी भी कई तरह का सामान बनाती है। इसकी विलुप्तता पौधों के हिस्सों का अवैध कटान और भवन बनाने के लिए जंगलों का सफाया से होती जा रही है। यह प्रजाति धीरे-धीरे विकसित होती है।
इसके बीजों का देर से अंकुरण और कम उत्पादन इसका मुख्य कारण है। इसे भी जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता तापमान खराब कर रहा है। डॉ. केएस कनवाल, जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण एवं सतत विकास अनुसंधान संस्थान, कुल्लू, ने बताया कि पिछले कुछ सालों में इसके पौधों को औषधीय दोहन के लिए अवैज्ञानिक तरीके से काटा जा रहा है। उचित प्रबंधन और संरक्षण न होने से क्षेत्र में इसके पौधों में बहुत कमी आई है। जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण एवं सतत विकास अनुसंधान संस्थान ने सुझाव दिया कि ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क इसके संरक्षण के लिए सबसे अच्छा स्थान है।
इसे तीर्थन वन्यजीव अभयारण्य, चूड़धार और काईस वन्यजीव अभयारण्य में भी उगाया जा सकता है। अध्ययन के अनुसार हिमाचल प्रदेश के भौगोलिक क्षेत्र का केवल छह प्रतिशत ही बिरमी पौधों को उगाने के लिए उपयुक्त है। वन विभाग ने कुल्लू के मौहल में 500 पौधे जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण एवं सतत विकास अनुसंधान संस्थान से लगाए हैं।
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