पालमपुर, रिपोर्ट
कुछ दिन पहले मैंने सिरमौर के काली ढांक बड़वास और मंडी के सतिधार कोटरूपी में पहाड़ खिसकने का जिक्र किया था । अभी हमारे मानसपटल पर शाहपुर विधानसभा क्षेत्र या रैत विकासखण्ड के रुलेहड़ बोह में हुई त्रासदी गाहे बिगाहे कभी भी झकझोर देती है । बरसात जाने के बाद रात गयी बात गयी की तरह हम सब भूल जाते हैं ।
2011 में हमारे संस्था ने रुलेहड़ और बोह क्षेत्र के साथ पूरे धार कंडी इलाके के सामाजिक , आर्थिक , भूगौलिक और भूगर्भीय सर्वेक्षण कर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट बना कर सरकार को दी थी । जिस में बावडियों ,झरनों , झरुड़ओं के संरक्षण और संवर्धन के उपाय आगामी पांच वर्ष के लिए सुझाये थे । 2012 से 2017 स्पष्ट लिख कर दिया था कि कहां किस क्षेत्र में वृक्षारोपण किया जाए , नालों में बादल फटने से आने वाली आकस्मिक बाढ़ से बचने के लिए किस प्रकार और कहां कहां वानस्पतिक अभियांत्रिकी और सिविल अभियांत्रिकी के काम करने है , IWMP परियोजना के तत्वाधान में कुछ धन भी उपलब्ध करवाया गया था और विभागों को विभन्न योजनाओं के माध्यम से कार्य निष्पादन के लिये आग्रह भी किये थे ।
लेकिन वो काम जो 2017 तक पूरे होने थे बिल्कुल भी न होने पाए । 2018 -19 में जल संग्रहण टैंक उस योजना के तहत वैज्ञानिक ढंग से बने और अभी आयी भीषण आपदा में वही टैंक सुरक्षित रहा । इस पोस्ट में चित्रों के माध्यम से आप देखें कि 2011 में क्या क्या सुझाया गया था ।
आज एक ओर जानकारी सुबह मिली जो चिंतित करने वाली है , पालमपुर क्षेत्र में बन्दला से भवारना और बनूरी से गोपालपुर क्षेत्र के 9 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पिछले वर्ष 314करोड़ लीटर भूजल बह गया , हमे लगता है कि न्यूगल में सारे वर्ष पानी वर्षा या बर्फ पिघलने से आता है , लेकिन आप को बता दूं कि इसमें 90 प्रतिशत पानी भूजल है , जिसके कारण न्यूगल गर्मियों में भी कल कल बहती है । हमने सोशल मीडिया में न्यूगल की गर्मियों में बहुत कम पानी की तस्वीरें देखी थी , उसका कारण आबादी वाले इलाकों में भूजल का अत्यधिक दोहन है । 314 करोड़ लीटर वर्ष में यानी दिन का 1 करोड़ लीटर , यह आंकड़ा प्राकृतिक स्त्रोतों से नही है ,यह आंकड़ा नलकूपों ,हैंडपम्पों से निकाले जा रहे पानी का है । भूजल ऐसे ही जबरदस्ती निकलते रहे तो खड्डे नाले सुख जाएंगे , जमीन बंजर होती जायगी और पहाड़ की पकड़ ढीली हो कर भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती जाएंगी ।
पालमपुर में डोहरु मुहल्ले के झरुडूं में पानी कम हो रहा है , वो दिन दूर नही जब नाला मंदिर के चश्मे को बचाने के लिये संघर्ष का रास्ता अपनाना पड़े ।
लगभग 5 ,6 साल पहले सुलह के पास नलकूप की खुदाई करते करते साथ मे चल रहा नाले का पानी देखते देखते सुख गया था ।
प्रकृतिक आपदाओं से बचने के लिए वैज्ञानिक पद्दति से वृक्षारोपण , भूजल संरक्षण और वानस्पतिक अभियंत्रकी की तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाने की जरूरत है । समय रहते भूजल के दोहन को बढ़ावा देना बंद करना होगा , भूजल के प्राकृतिक भूमि के अंदर बने रास्तों के साथ छेड़छाड़ तुरन्त रोकनी होगी । याद रखे समय पर कदम न उठाएं तो आपदाएं बढ़ेंगी , निचले इलाकों के लोगों को पीने के पानी की बड़ी भयंकर कमी होगी ।
आपदाओं से सबक ले कर पूरे प्रदेश में मिशनरी मोड में प्रयास शुरू करने होंगे ताकि हिमाचल और हिमालय को मानव सभ्यता के लिए सुरक्षित रख सके ।
अगली कड़ी में हमे अपने स्तर पर , समाजिक तौर पर और सरकार के प्रयास से क्या क्या करना होगा , इसकी चर्चा करूंगा ।
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