Ticker

6/recent/ticker-posts

Header Ads Widget

भारतीय वैदिक परंपरा में यज्ञ संचालन से रोगों की मुक्ति-वैज्ञानिक एवं प्रायोगिक महत्व

क्या कहते हैं डॉ. कपिल देव भारद्वाज ✍🏻


यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म
हमारे हिन्दू सनातन धर्म में अग्नि तथा हवन यज्ञों का वैज्ञानिक महत्व क्या है ...?



  • बिलासपुर, विशेष रिपोर्ट

  • भारतीय संस्कृति में अग्रिहोत्र कर्म प्रतिदिन करने की बौद्धिक काल से परम्परा रही है। यज्ञ, हवन के बिना कोई भी कार्य पूर्ण न मानने के पीछे इसमें निहित लाभ ही रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार फ्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की, जिसमें उन्हें पता चला कि हवन मुख्यत: आम की लकड़ी से किया जाता है। जब आम की लकड़ी जलती है तो फॉर्मिक एल्डिहाइड नामक गैस उत्पन्न होती है जो खतरनाक जीवाणुओं को मारकर वातावरण को शुद्ध करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गैस और इसके बनने का तरीका पता चला। गुड़ को जलाने पर भी यह गैस उत्पन्न होती है। टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गई अपनी रिसर्च में ये पाया कि यदि आधा घंटा हवन में बैठा जाए अथवा हवन के धुएं से शरीर का सम्पर्क हो तो टायफाइड जैसे खतरनाक रोग फैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।




हवन की महत्ता देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर रिसर्च की। उन्होंने ग्रंथों में वर्णित हवन सामग्री जुटाई और जलने पर पाया कि यह विषाणु नाश करती है। फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी शोध किया और देखा कि सिर्फ एक किलो आम की लकड़ी जलने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हुए पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलाई गई, एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद जीवाणुओं का स्तर 14 प्रतिशत कम हो गया।

यही नहीं, उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजूद जीवाणुओं का परीक्षण किया और पाया कि कक्ष के दरवाजे खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के 24 घंटे बाद भी जीवाणुओं का स्तर सामान्य से 96 प्रतिशत कम था। बार-बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि इस बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था। रिपोर्ट में लिखा गया कि हवन द्वारा न सिर्फ मनुष्य बल्कि वनस्पतियों, फसलों को नुक्सान पहुंचाने वाले जीवाणुओं का नाश होता है जिससे फसलों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो सकता है।
विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद की शुरुआत ही जिस मन्त्र से हुई है उसका अर्थ इसी परम्परा को सुसज्जित करता है -
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्


(ऋग्वेद 1/1/1/)
ईश्वर के सृष्टि यज्ञ से होती है।
यज्ञो वै श्रेष्ठतम कर्म
संसार का श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ ही है। हमारे ऋषि-मुनियों ने हवन और अग्नि के वैज्ञानिक महत्व को लाखों करोड़ों साल पहले ही समझ लिया था...!
हम इसका दूसरा उदाहरण '' संस्कार चन्द्रिका'' पुस्तक जिसका लेखन डॉ. सत्यव्रत विद्यालंकार जी ने किया है उन्होंने इस पुस्तक में उदघाटित किया है कि-
आस्था और भक्ति के प्रतीक हवन को करने के विचार मन में आते ही आत्मा में उमड़ने वाला ईश्वर प्रेम वैसा ही है जैसे एक माँ के लिए उसके गर्भस्थ अजन्मे बच्चे के प्रति भाव जिसे कभी ना तो देखा न सुना फिर भी उसके साथ एक कभी न टूटने वाला रिश्ता बन जाता है...!
इस तरह की मानसिक आनंद की जो अवस्था एक माँ की होती है कतिपय वही अवस्था एक भक्त की होती है जो वह इस हवन के माध्यम से वह अपने अजन्मे अदृश्य ईश्वर के प्रति भाव पैदा करता है और उस अवस्था में मानसिक आनंद के चरम को पहुँचता है...!
इस चरम आनंद के फलस्वरूप मन विकार मुक्त हो जाता है और, मस्तिष्क और शरीर में श्रेष्ठ रसों (होर्मोंस) का स्राव होता है जो पुराने रोगों का निदान करता है और, नए रोगों को आने नहीं देता...!
इसीलिए हवन करने वाले के मानसिक रोग (डिप्रेशन) दस-पांच दिनों से ज्यादा नहीं टिक सकते...!
सिर्फ इतना ही नहीं हवन के अग्नि में डाली जाने वाली सामग्री (ध्यान रहे, यह सामग्री आयुर्वेद के अनुसार औषधि आदि गुणों से युक्त जड़ी बूटियों से बनी होती है) अग्नि में पड़कर धुएँ के रूप में सर्वत्र व्याप्त हो जाती है जिससे वो घर के हर कोने में फ़ैल कर रोग के कीटाणुओं का विनाश करती है...!

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार दुनिया भर में साल भर में होने वाली 57 मिलियन मौत में से अकेली 15 मिलियन (25 % से ज्यादा) मौत इन्ही इन्फेक्शन फैलाने वाले विषाणुओं से होती हैं...!
वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि हवन करने से सिर्फ विषाणुओं से सम्बंधित ही नहीं बल्कि अन्य और भी बहुत सी बिमारियोंसे त्रस्त जनमानस प्रतिकूलता से अनुकूलता की गति को प्राप्त करता है । आपको एक बात आपके ध्यान में लाना चाहता हूँ कि गत 2 या 3 वर्ष पूर्व देश की राजधानी दिल्ली में श्री लाल बहादुर शास्त्री केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में एक प्रोजेक्ट राम मनोहर लोहिया अस्पताल के माध्यम से हुआ जिसका प्रयोगात्मक कार्य विश्वविद्यालय के कुलानुशासक एवं ज्योतिष शास्त्र विभाग के अध्यक्ष श्रधेय प्रोफेसर बिहारी लाल शर्मा जी की अध्यक्षता में हुआ इसमें अस्पताल में एडमिट 20 रोगियों के रोग निर्धारण के लिए उनके स्वास्थ्य में अनुकूलता के लिए मन्त्र साधना द्वारा ग्रह चिकित्सा का प्रयोगात्मक कार्य किया गया जिसमें शीघ्रता से उन रोगियों को स्वास्थ्य लाभ मिला जिसको दिखकर वहाँ के स्वास्थ्य अधिकारी भी हैरान हो गए फिर इस प्रकार की चमत्कारी सफतला को zee news वालों के एंकर सुधीर चौधरी ने भी प्रसारित किया था । इसलिए हमें अपनी प्राचीन ज्ञान रूपी वैदिक विरासत को भी अपने साथ इस विकट परिस्थिति में प्रयोग में लाना चाहिए ।
जब से विज्ञान ने अपनी सत्ता का प्रभाव इस संसार मे पसारा है तब से समस्त प्रकति एवं प्रकति के अनुकूलन को आत्मसात करने वाला मनुष्य अनेकों व्याधियों का शिकार होता आ रहा है जिसका प्रभाव आपके सामने पिछले वर्ष से देखने को मिला है रविन्द्र नाथ टैगोर जैसे बुद्धिजीवियों ने कई वर्ष पूर्व ये कह दिया था कि हमें प्रकति की और लौटना चाहिए इसके संरक्षण और इसकी गोद में रहकर अपने जीवनोपयोगी वस्तुओं का संग्रहण करना चाहिए । परंतु कम समय में अधिक की लोलुपता के करण विज्ञान ने भारतीय वैदिक ज्ञान की पराकाष्ठा को नजरअंदाज करते हुए नूतन नवीन अविष्कार करने के प्रयास में प्रकति का दोहन किया जिसके फलस्वरूप हमें क्या मिला भूमंडलीयतापन , रोगप्रतिरोधक क्षमता में न्यूनता । इसलिये हमें भारतीय प्राचीन ज्ञान गंगा की धाराओं से अपने समस्त जगत को अभिसिंचित करने की आवश्यकता है ।
नित्य प्रकति में निहित वनोऔषधि का मिश्रण में शुद्ध गौ माता के घी एवं निम्न औषधीय सामग्री के साथ

केसर, अगर, तगर, चंदन, इलायची, जायफल, जावित्री, , कपूर, कचरी, बालछड़, आदि।
पुष्टिकारक: घृत, गुग्गल, सूखे फल, जौ, तिल, चावल, शहद, नारियल आदि।
मिष्ट: शक्कर, छुहारा, दाख आदि।
रोग नाशक: गिलोय, जायफल, सोमवल्ली, ब्राह्मी, तुलसी, अगर तगर तिल, इंद्र जौ, आंवला, मालकांगनी, हरताल, तेजपत्र, प्रियंगु केसर, सफेद चंदन, जटामांसी आदि। उपरोक्त प्रकार की वस्तुएं हवन में प्रयोग होनी चाहिएं जिससे अवश्य ही समस्त जगत शुद्ध वायु और वातावरण से युक्त होगा ।
अतः इस महामारी के विकट समय में दुआ एवं दवा साथ साथ हो तो अवश्य ही चमत्कारी परिणाम हमें देखने को मिल सकते हैं ये किसी और देश में सम्भव नहीं हो सकता सम्भव हो सकता है तो सिर्फ भारत माँ की धरती में जहाँ शुक्राचार्य जी जैसे ऋषि अपनी ज्ञान परम्पर से मृत को भी जीवित कर देते थे अपने मृत सांजीवनी जैसे मन्त्र से मन्त्र-
मृत संजीवनी -

ऊँ हौं जूं स: ऊँ भूर्भुव: स्व: ऊँ त्र्यंबकं
यजामहे ऊँ तत्सर्वितुर्वरेण्यं ऊँ सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम
ऊँ भर्गोदेवस्य धीमहि ऊँ उर्वारूकमिव बंधनान
ऊँ धियो योन: प्रचोदयात ऊँ मृत्योर्मुक्षीय मामृतात
ऊँ स्व: ऊँ भुव: ऊँ भू: ऊँ स: ऊँ जूं ऊँ हौं ऊँ ।
अतः हमें चाहिए इस प्रतिकूल समय में देवालयों को आम जनता के दर्शन हेतु बंद होने के पश्चात विश्व में फैली इस महामारी हेतु यज्ञशालाओं में वैदिक परंपरओं से युक्त विद्वानों से महायज्ञों का संचालन करवाना चाहिए । जिससे रोग जन्य विषाणु उन औषधि युक्त धूम्र से नष्ट होकर संसार को आरोग्य बनाये ।

Post a Comment

0 Comments

दो मंत्री हो सकते हैं ड्रॉप,मंत्रिमंडल में फेरबदल की तैयारी